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कविता

झूठ - 5

दिव्या माथुर


तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई-सा
मैं जीवन भर
ढँकती रही उन्हें
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गए
तुम मेरी ओट लिए
साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच


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